धर्मक्षेत्र: माता गांधारी का आरोप
माता गांधारी का मानना है की महाभारत मैंने करवाया। सिर्फ अपने अहम् के लिए। माँ क्या गलत हो सकती है?
मैंने तो दुर्योधन को समझाने की कोशिश की। “दो न्याय अगर तो आधा दो, उसमें भी यदि बाधा हो तो देदो केवल पाँच ग्राम , रखो अपनी धरती तमाम”. मगर दुर्योधन में इतनी समझ कहाँ थी. महाराज धृतराष्ट्र की भरी सभा में, पितामाह भीष्म की उपास्थि में, आचार्य द्रोण और कृप के अंचल में, दुर्योधन मुझे ही बाँधने चला? क्या पूरी सभा यह भी भूल गयी की दूत निष्पक्ष होता है?
शायद माता चौसर का खेल याद कर रही है। मगर मैं तो उस शाम था ही नहीं अन्यथा पांडवों और पांचाली के साथ ये अन्याय मैं होने ही नहीं देता। अगर माँ यह देख रही होती तो क्या वो यज्ञसेनी की चीरहरण होने देती? इस सवाल का जवाब सिर्फ काल के पास है, आखिर महाराज धृतराष्ट्र और पितामाह भीष्म ने भी तो विकर्ण को नहीं रोका। मैंने केवल द्रौपदी की रही-सही सम्मान बचायी। वो मैं आज भी करूँगा, कल भी करता, कल भी करूँगा।
पांचाली अंगराज कर्ण के प्रति आकर्षित थी, मैंने उसे अर्जुन से मिलाया। क्यों? अर्जुन श्रेष्ठ धनुर्धर है। अर्जुन श्रेष्ठ योद्धा है। अर्जुन मेरा प्रिय है। वैसे भी, मेरे चाहने या बहलाने से क्या होता है? स्वयंवर अर्जुन जीता, कर्ण तो सूत-पुत्र था. फिर भी, इसमें मेरी क्या गलती माँ? मैं तो मेरी पांचाली के लिए अपना प्रिय ही खोजूंगा ना।
शायद माँ युद्ध की बात कर रही. युद्ध का प्रथम कारण आपका पुत्र दुर्योधन है, इसमें मेरा क्या दोष? क्या मामा शकुनी ने कुछ कम छल किये हैं? क्या आपको अपने अनुज की वंचना नहीं दिखती?
ऐसा न करो माँ, मैं भी तुम्हारा पुत्र हूँ।